जहाँ किताबें जलती हैं लघुकथा

जहाँ किताबें जलती हैं लघुकथा रघुवीर सिंह पंवार गांव की चाय की दुकान आज कुछ ज्यादा ही भरी हुई थी। पास के सरकारी स्कूल में निरीक्षण होना था और गांव के प्रधान, सुरेश जी, खुद तामझाम के साथ आये थे। दुकान के कोने में रखी टूटी-सी कुर्सी पर बैठा एक बच्चा, करीब नौ साल का, एक फटी हुई किताब में कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था।हो सकता वह जीवन के सपने बुन रहा हो प्रधान जी की नजर उस पर पड़ी तो उनकी आंखें ठिठक गई “अरे ओ सुरेश! आज स्कूल नहीं गया क्या?” — उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा। बच्चे ने धीरे से सिर झुकाया। होंठ थरथरा रहे थे पर आवाज में कोई कंपन नहीं था। मुस्कुराहट गायब थी “स्कूल जाऊं कैसे साहब... कल रात पिताजी ने फिर किताबें जला दीं। बोले – पढ़-लिखकर क्या करेगा? खेत पर कम कर या या दुकान संभाल। और फिर... माँ को मारा। बहुत ज़ोर से...” भीड़ कुछ पलों को स्थिर हो गई। हँसी के स्वर थम गए, चाय की चुस्कियाँ रुक गईं। पास खड़े देवीलाल जी ने अनसुना करने की कोशिश की। उनकी गाड़ी तैयार थी — स्कूल में उन्हें भाषण देना था, विषय था: "शराबबंदी और शिक्षा का महत्व"। चायवाले ने चुप...