किसान कहे जाएं या अन्नदाता? मेहनत किसान की, मुनाफा दूसरों का
किसान दिवस
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(रघुवीर सिंह पंवार )
किसान कहें या अन्नदाता—भारत की आत्मा खेती में बसती है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां लगभग एक तिहाई आबादी खेती-किसानी से जुड़ी है। देशवासियों के पेट की भूख की ज्वाला शांत करने वाला वही किसान है, जिसकी मेहनत पर पूरा समाज जीवित है। दुनिया अन्न ग्रहण करके जीती है और उस अन्न का हर दाना किसान की पसीने की कीमत पर पैदा होता है।
कड़कड़ाती ठंड, झुलसाती धूप और मूसलाधार बारिश—हर मौसम में किसान खेतों में डटा रहता है। दिन-रात मेहनत करके वह फसल उगाता है, तभी कहीं जाकर लोगों की थाली भरती है। लेकिन विडंबना यह है कि किसान को उसकी मेहनत का फल उसके श्रम के अनुसार नहीं मिल पाता।
कभी कम वर्षा, कभी अतिवृष्टि, कभी ओलावृष्टि—प्रकृति की मार किसान की फसल को पल भर में तबाह कर देती है। ऐसे में किसान न अपने परिवार का सही ढंग से पालन कर पाता है, न बच्चों की उच्च शिक्षा, न बेटा-बेटियों की शादी और न ही अपने सपनों का घर बना पाता है। देश के किसान की हालत दिन-ब-दिन दयनीय होती जा रही है।
खेती करने के लिए किसान बैंक से कर्ज लेता है। खाद, बीज, दवाइयां खरीदता है, लेकिन उसे यह भी नहीं पता होता कि खेत में डाला गया बीज लाभ देगा या नुकसान। फिर भी सागर जैसा हृदय रखने वाला किसान हर चुनौती स्वीकार करता है और बिना रुके अपना काम करता रहता है।
यदि फसल अच्छी हो जाए, तो वह भगवान को धन्यवाद देता है। मन में नए सपने बुनता है—बच्चों की पढ़ाई, बेटी की शादी, पक्का मकान। लेकिन जब वही किसान मंडी में अपनी फसल बेचने जाता है, तो उसके अनाज का दाम व्यापारी तय करते हैं। किसान कातर दृष्टि से उनके चेहरे देखता रहता है। मजबूरी में वह अपनी फसल औने-पौने दामों पर बेच देता है। कई बार तो लागत भी नहीं निकल पाती।
जब किसान अपने हक के लिए आंदोलन करता है, तो उसे आतंकवादी और देशद्रोही तक कह दिया जाता है। दूध या सब्जी के दाम बढ़ें तो लोग सड़कों पर उतर आते हैं, लेकिन शराब महंगी हो जाए तो कोई विरोध नहीं करता। यह कैसी विडंबना है कि अन्न और दूध महंगे हों तो हंगामा, लेकिन नशा महंगा हो तो शान से खरीदी।
सरकार हर साल समर्थन मूल्य बढ़ाती है, लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान होता है। कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन महंगाई के हिसाब से बढ़ते हैं, लेकिन किसान की फसल के दाम उसी अनुपात में क्यों नहीं बढ़ते? यदि ऐसा हो, तो किसान भी आत्मनिर्भर और खुशहाल बन सकता है।
सरकार समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदती है, लेकिन किसान को अपना अनाज बेचने के लिए तीन-चार दिन तक भूखा-प्यासा लंबी कतारों में खड़ा रहना पड़ता है। वहीं, सरकारी बीज निगम से वही बीज किसान को दो-तीन गुना दाम पर बेचा जाता है। यह दोहरा मापदंड आखिर क्यों?
अरस्तु ने कहा था—“किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मर जाता है।” यह कथन आज भी उतना ही सत्य है। दुनिया का पेट भरने वाला किसान खुद कई बार भूखा सो जाता है। बिजली बिल समय पर न भर पाए तो उस पर मुकदमे दर्ज होते हैं, प्रताड़ना दी जाती है। इसी त्रासदी से तंग आकर किसान आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठा लेता है। ऐसे कई उदाहरण हमारे जिले और प्रदेश में सामने आते रहते हैं।
उद्योगपतियों और बड़े व्यापारियों के हजारों करोड़ के कर्ज माफ कर दिए जाते हैं, लेकिन किसान के लिए सरकार के पास बजट नहीं होता। सरकारी कर्मचारी को वेतन और सेवानिवृत्ति पर पेंशन मिलती है—इसका विरोध नहीं है। लेकिन किसान जीवन भर देश सेवा करता है। 80 वर्ष की उम्र में जब वह शारीरिक रूप से कमजोर हो जाता है, तो सरकार उसे पेंशन क्यों नहीं देती?
किसान का कोई निश्चित काम का समय नहीं होता। न सप्ताहांत, न अवकाश। वह सूर्य की तरह बिना रुके, बिना थके काम करता है। उसे न वेतन मिलता है, न भत्ते, न सुरक्षा, न बीमा। फिर भी वह अपने दम पर परिवार का पालन करता है, और वह भी ऊंट के मुंह में जीरे जैसी सुविधाओं के साथ।
कहने को किसान अन्नदाता है, लेकिन वास्तविकता किसी से छिपी नहीं। लोकतंत्र के नाम पर हर चुनाव में करोड़ों रुपए बहते हैं। सरकारें बनती-बिगड़ती हैं, विधायक खरीदे-बेचे जाते हैं। चुनाव से पहले किसान कर्ज माफी का वादा किया जाता है और सरकार बनते ही सब जुमले बन जाते हैं। न किसान का भला होता है, न देश का।
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यदि आप भगवान को मानते हैं, तो मंदिरों से पहले एक रात सर्दी में खेतों में जाकर देखिए। वहां किसान अपनी देह की परवाह किए बिना फसलों को पानी देता मिलेगा। वही किसान निस्वार्थ भाव से पूरी दुनिया का पेट भरने में लगा है।
अब समय आ गया है कि किसान को सिर्फ “अन्नदाता” कहने के बजाय, उसे उसका हक, सम्मान और सुरक्षा भी दी जाए। नहीं तो यह अन्नदाता यूं ही उपेक्षा की आग में झुलसता रहेगा।

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