उज्जैन नगरी के दर्शनीय स्थल , भर्तृहरि की प्राचीन गुफा

 भर्तृहरि की प्राचीन गुफा

                                           भर्तृहरि की प्राचीन गुफा

देवीजी के मंदिर के निकट ही शिप्रा तट के ऊपरी माग में भर्तृहरि की गुफा है । प्रसिद्ध विद्वान् शतकत्रय के प्रणेय राजर्षि की यहसाधना स्थली है बौद्धकालीन शिल्प की यह रचना है। यहाँ नाथ सम्प्रदाय के साधुओं
का स्थान है । भर्तृहरि ने बंधु विक्रम को राज्य देकर वैराग्यवश नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अपनी प्रिय पत्नी महारानी पिंगला के अवसान पर उन्हें संसार  से विरक्ति हो ई थी। इस गुफा में उन्होंने योगसाधना की थी ।दक्षिण में गुफा के अन्दर गोपीचन्द की मूर्ति है। गुफा में प्रवेश करने का एक सँकरा मार्ग है। प्रकाश की व्यवस्था करके यहाँ प्रवेश किया जाता है । 
 

                                                                         कालभैरव



भैरवगढ़ शिप्रा नदी के तट पर ही पुरानी अवंती के प्रमुख देव कालभैरव का मंदिर है । चारों और परकोटा बना हुआ है । टीले पर बहुत सुन्दर एकान्त स्थान है । भैरव गढ़ की बस्ती पास ही है और यह नाम इन्हीं भैरव के कारण है। प्रवेश द्वार के ऊपर चौघड़िये बजा करते हैं। कालभैरव की मूर्ति बहुत भव्य एवं प्रभावोत्पादक है । कहा जाता है कि यह मंदिर राजा भद्रसेन द्वारा निर्मित है। मंदिर सुन्दर है। मंदिर पर भैरव अष्टमी को यात्रा होती है। सवारी भी निकलती हैं। पुराणों में अष्ट भैरव का वर्णन है। उनमें ये प्रमुख हैं ।


                               चौबीस खम्बा द्वार



महाकालेश्वरके मंदिर के पास से बाजार की ओर जाने के मार्ग पर यह पुरातन द्वार चौबीस खम्बा है। इसके । पास लगे हुए मोहल्ले का नाम 'कोट' है। इसी कोट के परकोटे का यह द्वार है । महाकालेश्वर मंदिर में नगर से प्रवेश करने का यही पुरातन द्वार रहा है, ऐसा उल्लेख मिलता है-

सहस्रपदविस्तीर्ण महाकालवनं शुभम् । द्वारं हर्धं रत्नाधैः खचितं सौभ्यदिग्भवम् ।

इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह महाकाल वन द्वार रहा है । इसके आगे ही एक छोटा द्वार और बना हुआ था । उस पर 12वीं शताब्दी का एक शिलालेख लगा था । उसमें लिखा था कि अनहिलपट्टन के राजा ने अवन्ती में व्यापार के लिये नागर और चतुर्वेदी व्यापारियों को यहाँ लाकर बसाया था । चौबीस खम्बा के दरवाजे के 24 खम्बे बने हुए हैं और उसकी बनावट पुराने शिल्प की है। आगे बाजार लगता है, जिसका नाम पटनी बाजार है, जो पहले पट्टन के निवासियों की बस्ती रही है ।

                                गढ़कालिका देवी 



महाकवि कालिदास की आराध्यदेवी मानी जाती है । नगर से लगभग दो मील की दूरी पर यह दर्शनीय स्थान रम्य वनराज में एकांत में बना हुआ है । इस मंदिर का जीर्णोद्धारई. सं. 606 के लगभग सम्राट श्रीहर्ष ने करवाया था । यहाँ सप्तशती का पाठ और पूजा होती रहती है । नवरात्रि में यात्रा होती है । यह तांत्रिक सिद्ध स्थान है। शक्तिसंगम तंत्र में लिखा है- 'अवन्ती संज्ञके देशे कालिका यत्र तिष्ठति' । इसी तरह पुराणों में भी इस स्थान के माहात्म्य का वर्णन प्राप्त होता है । लिंगपुराण में कथा है कि जिस समय युद्ध में विजयी होकर राम अयोध्या को वापस जा रहे थे । वे रूद्रसागर के निकट ठहरे थे। उसी रात्रि को कालिका भक्ष्य की खोज में निकली हुई थी । हनुमान को पकड़ने का यत्न किया, किन्तु हनुमान के भीषण रूप लेने पर देवी भयभीत हो गई। भागने के समय जो अंग गलित होकर गिर गया वही स्थान यह है ।


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