गुरु: अंधकार में उजाले की सांस"
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गुरु: अंधकार में उजाले की सांस" |
जब शब्द थम जाएँ, पर राह बतानी हो,
जब जीवन उलझे, पर सुलझानी कहानी हो।
तब एक स्वर उभरता है शून्य से—
जो खुद जलकर दिखाता रौशनी का पथ,
वही तो हैं — गुरु।
गुरु कोई नाम नहीं,
वो तो चेतना है, ध्वनि है,
हर अनसुनी सीख का पहला स्पंदन है।
वो सिर्फ पढ़ाते नहीं,
जीवन जीना सिखाते हैं।
कभी माँ की तरह लोरी में,
कभी पिता की तरह डांट में,
कभी मित्र की तरह साथ में,
गुरु बनकर वो हर मोड़ पर हमारे साथ होते हैं।
उन्होंने अक्षर दिए —
पर अर्थ हमने खुद ढूंढ़े नहीं,
उन्होंने चरित्र गढ़ा —
पर मूरत हमने कभी देखी नहीं।
गुरु पूर्णिमा के इस पावन क्षण में,
हम झुकते हैं श्रद्धा से —
उन चरणों में जहां से
ज्ञान की गंगा बहती है।
हे गुरु!
आप न होते तो हम क्या होते?
शब्द होते, पर अर्थ नहीं।
स्वर होते, पर संगीत नहीं।
जीवन होता, पर दिशा नहीं।
आपने जो दिया — वो अमूल्य है।
आपने जो छुआ — वो अमर है।
आपके बिना हम सिर्फ शरीर हैं,
आपने आत्मा को जाग्रत किया।
🙏 आज आपके चरणों में पूर्ण समर्पण है।
हर दिन आपका आभार,
पर आज विशेष नमन है।
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