"चौथा स्तंभ: लोकमानस में अडिग, संविधान में अदृश्य"

( रघुवीर सिंह पंवार ) संविधान में भले ही प्रेस के लिए कोई विशेष अनुच्छेद न हो , लेकिन लोकमानस में इसकी जगह आज भी सर्वोच्च है। न्याय की आस लिए आम आदमी जब थाने , दफ्तरों और सत्ता के गलियारों से धक्के खाकर लौटता है , तो उसकी आखिरी उम्मीद प्रेस ही होती है। अखबार के दफ्तर की दहलीज़ ही उसका सबसे सहज और सुलभ न्यायालय बन जाती है। छपे हुए शब्दों की ताकत यह छपे हुए शब्दों की ताकत ही है जिसने तमाम आलोचनाओं , व्यावसायीकरण और गिरते मूल्यों के बावजूद प्रेस को आज भी विश्वसनीय बनाए रखा है। लोकमानस में प्रेस का अर्थ आज भी अखबार और पत्रिकाएं ही हैं , न कि न्यूज चैनल या वेब पोर्टल। यही वजह है कि ‘ मीडिया ’ जैसे आधुनिक शब्द गढ़ने के बाद भी ‘ प्रेस ’ की गरिमा जस की तस बनी हुई है — यहां तक कि अपराधी भी इस शब्द को ढाल की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। टेलीविजन और प्रेस का सह-अस्तित्व अस्सी के दशक की शुरुआत में जब टेलीविजन ने दस्तक दी , तो प्रेस के भविष्य को लेकर चिंता बढ़ी। लगा , अब अखबारों का युग समाप्त हो जाएगा। लेकिन हुआ इसका उलट। प्रेस ने खुद को बदला , सजग हुआ , रंगीन हुआ , तकनीकी तौर पर समृद्ध हुआ। खोज...